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पुण्यतिथी पर विशेष:- हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है....


पुण्यतिथी पर विशेष:- 

हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है.... 

चिचोली मीडिया डॉट कॉम - Anand ramdas rathore chicholi)
आज हम सभी पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी की 56 वी पुण्य तिथी मना रहे है। 
पंडित दीनदयाल उपाध्याय युग पुरुष थे। उनकी देह हमारे बीच भले न हो लेकिन उनकी अक्षर देह और चेतना भारत भूमि से अलग हो ही नहीं सकती। दीनदयाल उपाध्याय केवल एक व्यक्ति या विद्वान या नेता या महापुरुष ही नहीं हैं, वह वास्तव में एक ऐसी शक्ति पुंज हैं जिनमें भारत भाग्य विधाता की प्रतिमा अवस्थित प्रतीत होती है। भारत में वैसे तो अनेक महापुरुष पैदा हुए हैं जिनको भारत की आत्मचेतना से जुड़ कर देखा और मूल्यांकित किया जाता है पर दीनदयाल उपाध्याय उन सभी में थोड़े विलक्षण दिखते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि दीनदयाल जी ने न तो खुद को संन्यासी बनाया और ना ही सत्ता के लिए आग्रह पाला। फिर भी वह राजधर्म और राष्ट्र धर्म को अक्षर अक्षर परिभाषित करते रहे। यकीनन दीनदयाल उपाध्याय साक्षात् राष्ट्र पुरुष हैं। वह कहते हैं- हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों की मूलभूत एकात्म देखा है। एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य, एक आदर्श, एक मिशन के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं। यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता। यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते है। जब राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं– राजनीतिक और आर्थिक दोनों– परिणामस्वरूप धर्म की गिरावट होती है। धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है।
देश सेवा:- 
पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। दीनदयाल देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि 'हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह 'पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोड़कर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।
राष्ट्र धर्म प्रकाशन:- 
अब दीनदयाल जी ने लखनऊ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था। यहाँ उन्होंने राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरुआत की। सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 'नेहरू-लियाकत समझौते' का विरोध किया और मंत्रिमंड़ल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डॉ. मुखर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओं को संगठित करने में श्री गुरु जी से मदद मांगी।
राजनीतिक सम्मेलन:- 
पंडित दीनदयाल जी ने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य इकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयाल जी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डॉ. मुखर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले 'अखिल भारतीय सम्मेलन' की अध्यक्षता की। पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में दीनदयाल उपाध्याय को प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। वे लगातार दिसंबर 1967 तक जनसंघ के महासचिव बने रहे। उनकी कार्यक्षमता, खुफिया गतिविधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं।' परंतु अचानक वर्ष 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के युवा कंधों पर आ गयी। इस प्रकार उन्होंने लगभग 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की। भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। दीनदयाल जी इस महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए।
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